हिंदुस्तान दर्शन
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दिन को दिन ही कह पाऊँगा, कह सकता दिन को रात नहीं।
मुँह देखी प्रीत निभा पाऊँ , ये मेरे बस की बात नहीं ।
कह लो मुँहफट भले मुझे , या नाम कोई मुझ को दे लो।
मुँह से जहर उगलने का , इल्जाम भले मुझ को दे लो।
मैं भी नहीं धुला ढूध का , कह कर ये संतोष करो।
या फिर कह लो, तुम्हें समझ लूँ, मेरी इतनी औकात नहीं ।
मुँह देखी प्रीत निभा पाऊँ ये मेरे बस की बात नहीं ।
जब भी मिलते हैं हम -तुम , एक अजीब दंभ से भरे हुए।
झुकना पड़ गया कहीं अगर , अपमान- भीती से डरे हुए।
आँख -मिचौली की क्रीडा , बस पीड़ा पर जाकर ठहरेगी।
हार किसी एक की, क्या होगी दुजे की भी मात नहीं।
मुँह देखी प्रीत निभा पाऊँ, ये मेरे बस की बात नहीं।
गंगा धर शर्मा “हिंदुस्तान”
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